किससे कहूं दिल की बात…?

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जीवन की संध्या बेला में गर छूट जाए हम सफर…

पत्थरों और कांटों से भरा होता है आगे का डगर।

कहां ढूंढ़ू.. किसे ढूंढू.. किससे कहूं.. अपने मन की बात..

बेटा-बेटा कहते थकती नहीं थी जुबां..

उससे ही अपना दर्द नहीं कर सकती बयां..

परिवार है उसका अपना और मैं एक बोझ…

कहता है- सठिया गई हूं,

पर मेरे मन की बेचैनी भी पूछ लेता किसी रोज।।

है बच्चों को एक बार गला लेने लगा लेने की चाह..

पर मुई ये खांसी बंद कर देती है हर राह..

मैं अम्मा हूं, दादी हूं पर हूं सबसे पहले सास…

कैसा यह रिश्ता जो कभी किसी को नहीं आ पाया रास।।

हां भुगत रही हूं सजा उम्र के ढल जाने की

जीवन की संध्या बेला में हमसफर के गुजर जाने की..।।

प्रीति पूनम

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