बेटियां… हमारी बेटियां…

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३ दिसंबर, २०२२
यूं तो बेटियों को घर से बाहर जाने की इजाजत नहीं होती !

फिर क्यों उन्हें शादी के नाम पर उम्र भर के लिए

               बाहर निकाल दिया जाता है?

यूं तो बेटियां ही होती हैं घर की इज्जत उसके बारे में कोई कह दे अपशब्द- तो होती है लड़ाई…मारपीट या फिर बात कचहरी

                         तक पहुंच जाती है!

पर इस इज्जत को भेज देते हैं ससुराल जो रोज सुनती हैं गालियां…रोज होती है बेइज्जत!

 

कहने को कोई अंतर नहीं है …

तो फिर क्यों नहीं बन जाते बेटे घरजमाई?

               और बेटियां रह जाती हैं अपने ही घर में….

  ऐसा होता है इसलिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि बेटियां हमारे जायदाद में हिस्सेदार हों!

और बेटियां भी ये नहीं जानती कि परंपराओं ने उसे कैसे छला है?

क्यों टुकड़ों में बंटती रही तुम? ना मायका मिला ना ससुराल …

कोई तुम्हें अपनाया नहीं ..

तुम हमेशा पराई ही रही..

तुमने खर्च दी सारी उम्र सबको अपना बनाने में!

बांध दिया तुम्हें, तुम्हारा मन और बदन …

स्त्री धन के नाम पर तुम्हें देकर कभी झुमके तो कभी कंगन…

पुरुषों ने क्यों नहीं बनवाई अपने जायदाद की ताबीज?

क्यों नहीं पहनीं अपनी हवेली और वाहन की मालाएं?

उलझा दिया तुम्हें सौंदर्य के नाम पर…

और खुद को तुमने  कैनवास बना, कर ली रंग-रोगन से दोस्ती..

कैसे गुजार लेती हो तुम अपनी पूरी उमर- जो कभी सजता नहीं…

एक-शर्ट पैंट (एक तरह का ड्रेसअप) में गुजार देता है सारी जिंदगी….

और तुम क्यों प्रमाणित करती रहती हो, हर पल खुद को- पतिव्रता, आदर्श मां और आदर्श बहू?

और स्वतंत्र पुरुष क्यों नहीं लगाता तुम्हारे नाम का सिंदूर?

क्यों नहीं पहनता तुम्हारे नाम का मंगलसूत्र?

आखिर कब तक छली जाती रहोगी तुम?

क्या तुम्हारे जमीर की बकरियां यूं ही हर दिन कटती रहेंगी परंपराओं की बेदी पर?

कब जागोगी विकसित देश की नारी तुम?

तुम्हें कुछ करने की जरुरत नहीं है बस पूरी तरह सचेत होकर जाग जाओ हे नारी!

 

                 

                                                    

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