डायन
कमरे में पलंग पर बैठी सुनीता किसी बुत की तरह एकटक खिड़की से बाहर देख रही है। उसकी आंखों से झर-झर आंसू बह रहे हैं और हां अपने हाथों में उसने एक सुंदर सी राखी पकड़ रखी है। उसके दिमाग में बरसों पुराना सोया हुआ यादों का पिटारा एक-एक कर खुलता जा रहा है।
वो 5 साल की रही होगी जब उसने पहली बार राखी खरीदी थी। वह खुश थी, बहुत खुश। खुशी से भागती, हांफती हुई सी अपनी मां के पास पहुंची और राखी दिखाते हुए मासूमियत से बोली- मां देखो ना कितनी सुंदर राखी है। मेरी सारी सहेलियां राखी खरीद रही थी तो मैंने भी खरीद ली। मां ने पल भर के लिए उसको देखा फिर उसकी राखी देखी और उसे गले से लगाकर कहा- बहुत अच्छा है, रख दे जब भाई आएगा तब उसको बांधना। बात आई गई खत्म हो गई, वो दिन भी आ गया जब मेरा कोई भाई या बहन आने वाला था। हां! मां गर्भवती थी मेरे बाबूजी पांच भाइयों में सबसे छोटे थे और मैं उनकी सबसे बड़ी संतान।
हमारा संयुक्त परिवार था हम बच्चों के लिए तो हमेशा उत्सव का माहौल था। हंगामा खेलकूद और बड़ों की परेशानियों से हमारा क्या काम?हमारे घर के सभी बड़े चाहते थे कि मां को बेटा ही हो क्योंकि मैं बेटी थी दादी बार-बार बोलती चलो अब छोटे के बेटे का भी मुंह देखकर शांति से मर सकूंगी।
वह दिन भी आ गया जब मां प्रसव पीड़ा से कराह रही थी पर घर का माहौल ऐसा था कि पिताजी इन सबसे बेखबर थे। घर की औरतें ही गांव की दाई को बुला लाई और मैं हैरान-परेशान थी। बाबू जी से पूछा कि मां को क्या हुआ? वह चुप थे हमारे समाज की परंपरा कहें या पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता या कुछ और, बाबूजी बड़े-बुजुर्गों की इज्जत के लिए या लज्जावश मां से दूर थे। हमारा भाई जन्म ले चुका था। दो दिन हो गए बाबूजी को ना मां की तबीयत की सुध थी ना घर आए मेहमान की। सब खुश थे बहुत खुश क्योंकि घर में बेटा आ गया था। ऐसा नहीं था कि बाबूजी खुश नहीं थे या हमसे प्यार नहीं करते थे। वजह था संयुक्त परिवार…
मैं बहुत खुश थी और दुखी भी क्योंकि मुझे भाई मिला था और सब बारी-बारी से खुश होकर मुझे यह बता रहे थे पर मां का वक्त अब मेरे हिस्से नहीं था, इस बात का दुख भी था मुझे। मेरा यह दुख मेरे भाई को कभी-कभी मेरा दुश्मन बना देता था। पर मेरा ये दुख बहुत छोटा था क्योंकि शाम को मेरे भाई ने अपनी आंखें नहीं खोली। मां जोर-जोर से रो रही थी। अब पिताजी सबके साथ इस नन्हे को देखने आए थे जब उसने अपनी आंखें बंद कर ली।
पूरे घर में टोटके शुरू हो गए… अरे डायन ने इसकी जान ले ली। घर धुंए से भर गया। सब खांस रहे थे.. पर शुक्र है डायन की बला तो इस धुंए में विलीन हो जाएगी थोड़ी खांसी ही सही किसी की जान तो न जाएगी। आज 50 साल के बाद भी मेरे आंखों के सामने वह दृश्य स्पष्ट देख पाती हूं मैं, पर आज उस दुख से ज्यादा दुखी हूं… खुद को धिक्कारती हूं, आत्मग्लानि से भर जाती हूं क्योंकि वह डायन जिसे आज मैं जानती हूं, पहचानती हूं… उसका नाम है- ‘टेटनेस’ जो नन्हे को हुआ था। काश! कि यह समझ 50 साल पहले किसी के पास होती। किसी को भी उस छोटे से गांव में यह पता होता की जंग लगे घास काटने वाले औजार से उसकी नाभी ना काटी जाए। इसी डायन ने मेरी आंखों के सामने मेरे चार भाइयों को निगल लिया और सब डायन भगाओ अभियान में लगे रहे। 50 साल हर राखी के दिन में रोई और आज भी रो रही हूं…. क्योंकि आज भी राखी का त्योहार है….