मेरी निगाह बार-बार दरवाजे की तरफ जा रही थी। इनके ऑफिस जाने का समय हो रहा है और रामू अभी तक इस्तरी किए कपड़े लाया नहीं, अब तो ऑफिस निकलने में मात्र 20 मिनट रह गए हैं, मैंने फोन किया- हेलो! रामू तुम आए नहीं?
मेम साहब मुझे बुखार है, मैं नहीं आ पाऊंगा… दूसरी तरफ से आवाज आई।
मैं झल्ला गई, ठीक है… तुम बता तो सकते थे.. मैं आती हूं.. कहते हुए मैंने फोन काट दिया।
जब मैं रामू से कपड़े लेने उस जगह गई, जहां वह इस्तरी करता है, उस जगह को मैं क्या संबोधित करूं, मुझे पता नहीं।
एक ऐसी जगह – जहां सबकी नजर आसानी से जा सके, वहां एक चौकी पड़ी है और वहीं बुखार से तपता रामू और बगल में लेटा नन्हा सा बच्चा। बड़ी तन्मयता से कपड़े निकालती पास में उसकी बीबी। कभी चौकी पर बिछाए कपड़े पर इस्तरी करती, कभी गिन-गिन कर कपड़े निकाल कर देती। कड़ाके की ठंड में उस छोटे से बच्चे को वहां इस तरह देख मैं खुद को रोक नहीं पाई और बोली, रामू इस बच्चे को यहां क्यों लिटाया है? इतनी ठंड में… तुम्हारा घर कहां है? मैडम सेक्टर 11 में, वह इतना ही बोल पाया । मैं खीझते हुए बोली, तुम्हें बुखार है तो क्या जरूरत थी आने की, आज छुट्टी कर लेते। रामू तो कुछ नहीं बोला पर उसकी पत्नी मुस्कुराते हुए मेरी तरफ मुड़ी, तो मैं कुछ पल पहले के वाक्यों को याद कर खुद ही झेंप गई। मुझे ऐसा लगा मानो, उसकी नजरें पूछ रही हों, आप जैसे साहब ऑफिस कैसे जा पाएंगे, मेम साब!
फिर उसने पूछा मैडम कितने कपड़े हैं? मैंने हड़बड़ाहट में कह दिया 12 वो ग्यारह कपड़े निकाल कर मेरे हाथों में रख गई और 12वां ढूंढने लगी, सारे गट्ठर खोले और मुझे दिखाए पर उसमें राज के एक भी कपड़े नहीं थे, फिर मैंने राज को फोन किया राज ने डायरी खोली, देखा, और बताया कि 11 कपड़े ही थे।
मैं वहां से वापस घर तो आ गई, पर मुझे वह घटना बार-बार याद आ रही थी। अब मैं जहां से भी गुजरती हर गली में आसानी से मेरी नजर धोबी पर पड़ जाती। हर धोबी की एक ही समानता, ना कोई तख्ती, ना कोई बोर्ड, ना किसी पेपर में इश्तेहार, फिर भी इनको काम मिल ही जाता है। ना पैसे रखने के लिए कोई तिजोरी, ना कपड़े की संख्या लिखने के लिए कोई रजिस्टर या डायरी, साहब ने जितना कह दिया विश्वास कर लिया। यह विश्वास था, और गलत फहमी की शिकार किसी मैम ने चार बातें सुना दी, यह रिस्क कौन ले सकता है, एक धोबी ही! चार बातें सुन लेने का आदि।
अपने काम को पूरी निष्ठा और लगन से करने की चेष्टा, ऐसा ईमानदार व्यवसाय सिर्फ यही हो सकता है। मेरे मन में बरसों बाद ऐसी उथल-पुथल मची थी और दोपहर को मेरे बेटे आर्यन ने कहानी सुनने की जिद पकड़ ली।
यही धोबी की कहानी जो मेरे मन मस्तिष्क में चल रही थी मैंने उसे सुना दी। आर्यन ने मासूमियत से यह सवाल दाग दिया- पर मम्मा यह सरकार या कोई एनजीओ इसके लिए काम क्यों नहीं करती? मैं चुप थी, आर्यन ने आगे कहा- मैं बड़ा होकर एनजीओ चलाऊंगा जिसमें धोबी के लिए काम होगा, जॉब होगा, ऑफिस होगा, नेमप्लेट, कंप्यूटर में कपड़ों की संख्या एड्रेस सब नोट होगा।
मैं मुस्करा उठी… यह 10 साल का बच्चा…इसके पंख फैलाते सपने… अभी कहां जानता है कि बड़े होने पर, हमारे ऐसे न जाने कितने सपने देश के लिए, गरीबों के लिए, विधवा औरतों के लिए, लावारिस बच्चों के लिए, बुजुर्गों के लिए या फिर जानवरों के लिए कहां खो जाते हैं?
वक्त के साथ पता ही नहीं चलता हम क्या करना चाहते थे? हमारे पास रह जाती है बस अपना पेट भरने की मशक्कत अपने परिवार के लिए सुविधाएं जुटाने की होड़ और ज्यादा से ज्यादा अमीर बन जाने की चाहत।
Bitter truth