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मैं सोचती थी, मां संवेदनहीन है….

नहीं समझती, दोस्तों के साथ होने वाली मस्ती!

है कितनी कठोर! अंधेरा होने से पहले घर आने को कहती है…

अल्हड़ उम्र ने नहीं समझाया कि मां है कुम्हार!

हमें दे रही है सही आकार!!

ठोक-पीटकर बचा रही है कुरूपता से..

बांधती तारीफों के पुल! यह भूल.. कि पापा तो बस करेंगे रंग-रोगन और सजाएंगे फूल-पत्तियों से!

वह हैं कलाकार!

मां को दोषारोपण करते हुए सिर्फ चुनेंगे सही आकार..

भरेंगे रंग सिर्फ सही आकार में वरना छोड़ देंगे रंगहीन…

आज मैं भी हूं एक मां… बना रही हूं अपना घड़ा…

समझती हूं, कैसे पाँच मिनट की देरी से कलेजा मुंह को आता है…

हजारों आशंकाओं से घिरा मन कर्कश हो जाता है..

वक्त के साथ बहुत बदल गई है मेरी मां… पर आज भी नहीं बदला है उसका मन।।

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