मैं गांव की नहीं हूं मैं शहर में पली-बढ़ी हूं। अरे! बाबा हमका माफी दे दो…
क्योंकि मैं नहीं हम सब शहरी हैं। कोई भी गांव का है ही नहीं, गांव का होना आजकल गाली है। कुछ शिक्षित लोग ही मुश्किल से मानते हैं कि उनकी परवरिश पढ़ाई-लिखाई गांव में हुई है। पर सच तो यह है कि गांव के लोग शिक्षित भले ही ना हों पर शहर वालों से ज्यादा ज्ञानी और प्रैक्टिकल होते हैं। किताबी ज्ञान होना अलग बात है और विवेकशील संवेदनशील होना अलग बात।
गांव के गंवार रिश्तो में बैलेंस बनाना और सबको साथ लेकर चलना बखूबी जानते हैं। गांव के गंवारों के स्मार्टनेस हम शहरी चाह कर भी नहीं सीख सकते।
हर उम्र के लोगों के साथ वक्त गुजारना और उन्हें अपना दोस्त बना लेने की कला तो गांव वालों के पास ही है।
हम शहरी तो बस अपना खुद का टाइम ही ढंग से मैनेज कर पाते हैं। हमारे पास वक्त कहां है सच्ची खुशी पाने का या सच्चा सुख समझने का। हम तो भौतिक चकाचौंध और कॉमेडी में ही सुख खोजते रह जाते हैं। वह बच्चों की मासूमियत वो खिलखिलाहट तो उनके पास है जिनके पास बस दो वक्त की रोटी और तन ढकने का वस्त्र मात्र।
उन्हें कुछ चाहिए भी नहीं सिर पर बारिश में टपकती छत भी वो खूब इंजॉय करते हैं और सुकून से सो पाते हैं। वहां भागम भाग नहीं है। वहां स्थिरता है, प्रकृति है, हरियाली है, बहती हुई नदियां हैं, झरने हैं या यूं कहें जीवन की शुद्ध हवा और जीवन का रस तो गांव में ही है। बस जरूरत है वहां अच्छे डॉक्टर और अच्छी शिक्षा की। अगर यह दोनों चीजें हो गांव में तो जीवन की संपूर्णता तो गांव में ही है।