प्रेम का इंद्रजाल
प्रिय…..
कितनी बार चाहा कि तुम्हें, ना चाहूं।
पर, कैसे करूं जाहिर कि कितना चाहा है मैंने..
समझाती हूं भूल जाऊं तुम्हें,
पर किससे कहूं कितना याद आता है तू….
हां मैंने ही कहा खत्म करो यह सब
मैं ही नहीं कर पा रही खत्म अब किससे कहूं
ना जाने यह मन क्या चाहता है?
मचला करता है क्यों बार-बार
जाता है टूट फिर भी मानता नहीं हार
रंग-बिरंगी है यह दुनिया
हैं यहां ना जाने कितने रंग
सब हो जाते हैं पल में अनजाने
रहूं में किसके संग?
इस सतरंगी इंद्रधनुष की रंगों को
मैं जाने क्यों पहचान न पाती
है कौन सा रंग अच्छा मैं भ्रमित हो जाती…