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थी वो एक खुली किताब,
पर भाषा उसकी मुझको नहीं आती।

वो थी चंचल सी हिरनी,
भागती थी बलखाती हुई,
और सरपट भागता मैं घोड़े सा,

पकड़ सकता था उसे,
पकड़ना भी चाहता था,
पर चाल उसकी मेरे समझ नहीं आती।

उसकी हंसी मानो संगीत से भी मीठी ,

और मेरा अट्टहास करता भय उत्पन्न।

क्यों मेल नहीं था मेरा…
वो सुघड़ तो मैं अक्खड़…
वो शालीन तो मैं अभद्र…

फिर क्यों खिंचता था मन मेरा।
क्यों चाहता था उसके जैसा होना।।

वो चीनी सी मीठी,
मैं करेला सा कड़वा…
वह दूध सी सफेद,
मैं कालीमा सा मैला…
फिर कैसे हो सकता था मैं उसका

और कैसे हो सकती थी वह मेरी…

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