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है उलझन बड़ी…

मैं अल्हड़ हूं या हूं समझदार।
क्यों टूटती नहीं खाकर इतने वार?

मेरा यथार्थ तो है तारों की तरह टूटता जाता,
फिर भी आसमां में कम नजर नहीं आता,

कहते हो तुम,

है मेरी सोच की नकारात्मक दिशा…
इसलिए नहीं है मेरी जिंदगी में ख्वाब का निशां…
है मेरे ख्वाबों पर कफन….

नहीं करती मैं काले यादों को दफन।
है यह दुनिया इंद्रधनुषी,
फिर भी रौशनी छोड़ मैं अंधेरे में ढूंढती खुशी।

चाहती हूं दुनिया  में शामिल हो कहीं मेरा भी नाम
पर जानती नहीं कैसे होगा यह सच,

नाम से पहले ही ना हो जाए जिंदगी की शाम।।

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