पीहर हुआ पराया

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मायके के दिरखा पर छोड़ आई मैं अपनी बहुत सारी अधूरी ख्वाहिश… छोड़ आई… बचपन की सहेलियां, यादें, और उनके किस्से…. छोड़ आई मैं… वह अधूरी पेंटिंग जिसमें श्वेत और अल्हड़ चांद दमक रहा था… छोड़ आई मैं… अधूरी पढ़ी वह उपन्यास जिसमें- प्रेयसी छुप-छुप के प्रेमी को खत लिखा करती थी छोड़ आई… वह कविता जिसमें सखियां सावन के झूले संग झूमती-गाती थीं छत की मुंडेर पर पापा के लिए सूखता अचार का जार… छोड़ आई मैं.. अगले साल के लिए सहेजी हुई राखी छोड़ आई मम्मी के साड़ी में उकेरती अधूरी कढ़ाई छोड़ आई मैं, अपना हर पागलपन.. गुस्सा.. बेबाकीपन.. स्वतंत्रता… छत की मुंडेर पर खड़ा होना, अपनी गलियों में हिरनी सी भागती चाल… अपनी बड़ी-बड़ी आंखों में सजाए ख्वाब…. उसमें भर लिए थे मोटे-मोटे आंसू…. वे आंगन, वे दहलीज, वे माता-पिता, वे अपनापन….. सब छोड़ आई… कहने को मायके में होते हैं माता पिता पर, ब्याही लड़की का कोई नहीं होता.. अनाथ हो जाती है वो कन्यादान के साथ ही…

4 thoughts on “पीहर हुआ पराया

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