यहां आए दिन होती हत्या, हाय-तौबा मचाने जैसा क्या है? हमने बहुत सारी छोटी-छोटी बारीक गलतियों को नजरअंदाज कर इंसानियत को इस मोड़ पर पहुंचाया है। हमारा स्वार्थ इस कदर हम पर हावी है कि हमारा समाज अब मेरा परिवार और मैं तक सिमट गया है। किसी की बिखरती भावनाएं, किसी का टूटता विश्वास, किसी का भी दुख दर्द देखने वाली आंखें अब नहीं हैं। हमारे हृदय में क्या इतनी तरलता बची है कि किसी के बहते पसीने या किसी की परेशानी से हम पिघल जाएं?
नहीं ना… हम तो सबसे पहले ‘मैं’ पर ठहर जाते हैं। सबसे पहले खुद के बारे में सोचना हमारा संस्कार बन चुका है। सबसे पहले खुद को बचा लेना हमारे शिक्षा का हिस्सा बन गया है। और यही शिक्षा हम आने वाली पीढ़ी में भी डाल रहे हैं। कहीं किसी के लिए खड़ा होना हमने सीखा कब? क्या किसी के माता-पिता ने सिखाया या फिर स्कूल के शिक्षकों ने? सबने यही कहा आत्मरक्षा सबसे पहले जरूरी है। अपनी रक्षा करना.. किसी और की परवाह किए बिना…
श्रद्धा, निक्की, सरस्वती, साक्षी जैसी तमाम लड़कियां जो अपने अधिकार के प्रति जागरूक हो रही हैं उनकी धमकियों से बचने के लिए… उसका कदम रोकने के लिए उसकी जान लेना कौन सी बड़ी बात है? यह तो आत्मरक्षा है… खुद को बचाना और परिवार से जिल्लत सहने से अच्छा उनकी हत्या कर देना आसान लग रहा है।
हमारी इंसानियत, हमारी भावनाएं इस कदर मर चुकी हैं कि कॉमेडी में भी जब किसी का मजाक बनाया जाता है तो पूरी महफिल ठहाके लगा रही होती है। क्या किसी के व्यक्तित्व की कोई कमी कॉमेडी या हमारे हंसने का कारण हो सकता है? यह सोचनीय है पर आए दिन ऐसी चीजें परोसी जाती हैं जो हिट भी होती हैं… क्या वाकई किसी का मजाक बनाना आपको आंतरिक खुशी देता है?
क्या भूले से भी सामने वाले की भावनाओं का ख्याल नहीं है आपको? जिसका मजाक बन रहा है उसके अंदर कुछ टूट रहा है और जो मजाक बना रहा है उसकी नैतिकता खत्म हो रही है।
हम पूरी प्लानिंग करते हैं किसी की हत्या की और उस प्लानिंग के दौरान हमारी आत्मा पूरी तरह अचेत अवस्था में सोई रहती है क्योंकि यह काम हम वर्षों से करते आ रहे हैं। यह अपराधिक घटना क्षणिक नहीं है। यह अपराध बरसों से पनप रहा हमारे अंदर भिन्न-भिन्न रूप में पर किसी का ध्यान नहीं गया, ना खुद का और ना ही किसी और का। हम मानवता के उस मुकाम पर खड़े हैं जहां हमारी पशुता जाग रही है और इंसानियत सो रही है।