प्रीति पूनम
ये जो नए साल का शोर है
बताओ किस कदर नया है?
मैं तो ढलती शाम हूं
बस दर्द सह रहा हूं
मेरा शरीर तप रहा है
चारों तरफ अंधेरा घनघोर है
मेरे पास तो है दमकता सूरज (बेटा)
पर उससे भी कहां
मेरे जीवन में भोर है
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नए साल का मंजर
लगता है वो रातभर गम के ओस में नहाता रहा
जरा सा छेड़ क्या दिया
गीली आंखों की पंखुड़ी से ओस झड़ती रही
टुकड़े-टुकड़े से दर्द उसके
अपनी जेहन में समेटता रहा
अपनी कंपकंपाती उंगलियों से
कैसे दरारें भरता उसकी?
मैं खुद ही ढलती हुई शाम हूं
और वो मेरा उगता-दमकता सुबह
मेरी सुबह से गर यूं ही टपकती रहेगी बारिश
तो कैसे नए साल का मंजर बदलेगा?