रंगों की चालाकियां
प्रीति पूनम
मुझे भीड़ पसंद नहीं, घबराहट होती है मुझे भीड़ से पर पेड़ों की भीड़ मुझे पसंद है।
जहां लोगों की भीड़ की फुसफुसाहट मुझे परेशान करते हैं वहीं पेड़ों की भीड़ से मुझे सुकून मिलता है।
जब भी मंद-मंद सी हवाएं मेरे गालों को सहलाती हैं या मेरे खुले बालों से खेलती हैं तो मैं उसकी तरफ मुंह करके खड़ी हो जाती हूं। बरबस ही मेरे होठों पर मुस्कान खिल जाती है और पल भर में ही मेरी सारी थकान दूर हो जाती है।
लोगों की महफिल चाहे वो सड़कों पर भागते हुए हो या पार्टियों में शोर करते हुए। मुझे थका देते हैं। ऊपर से मेकअप का बोझ, उस पर से उफ्फ! लंबी-लंबी दिखावटी बातें लपेटते-लपेटते मैं थक ही जाती हूं।
ये पल-पल रंग बदलते लोग मेरी समझ से परे हैं। कैसे समझूं इसे ये मेरे लिए बहुत कठिन है।
रंगों की पहचान है मुझे… फैशन या ट्रेंड में चल रहे हर रंग मैं बखूबी जानती हूं, पहचानती भी हूं…
जब भी आसमान में बादल छाते हैं पेड़ों के रंग चमकीले हो जाते हैं। जब आंधियां चलती हैं पेड़ों के रंग गहरे हो जाते हैं। ये सब आसान है समझ पाना कि जब चिड़ियां तिनके लेकर आती है तो वो हमारी बॉलकनी में घर बनाना चाहती है अंडे सेवना चाहती है।
लेकिन ये दरवाजे से कॉलबेल बजाकर आते लोग होठों पर लंबी सी मुस्कान ओढ़े किस मकसद से आते हैं, कौन से रंगों में रंगकर आए हैं हम कहां जान पाते हैं।
बस उतना ही जान और समझ पाते हैं जो वो हमें बताते हैं। सच का बुलबुला, झूठ का पहाड़ या दुख के झूठे-सच्चे आंसू या झूठे हंसी और ठहाके का बाजार। हम शामिल हो जाते हैं उनके रंग में, उतना ही समझ पाते हैं जितना वो हमें समझाते हैं।
एक तरफा सच, एक तरफा विचार, वो हमसे अपना कौन सा उल्लू सीधा करना चाहते हैं, कौन सा रंग ओढ़कर आए हैं कितने रंग हैं उनके पास। रंगों की चालाकियां ना मैंने कभी सीखी ना जान पाई। हमेशा खुद को ठगा सा ही महसूस किया। ये रंगों की कलाबाजी काश कि जिंदगी और अनुभव के अलावा भी कहीं सिखाई जाती।
तो मैं ठगी नहीं जाती।