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देहरी कभी लांघी नहीं,
मर्यादा कभी तोड़ी नहीं,
फिर भी स्त्री पुरुष के अंतर पर सहमति जताई नहीं…
हड़बड़ायी, लड़खड़ाई, गिरकर फिर चल दी..
में हारी वहां जहां मेरे मन ने हराया मुझे…
करती रही तर्क- वितर्क होकर बदतमीज,
जब तक मेरे तर्कों ने गलत नहीं ठहराया मुझे…
जहां रखना था उम्र या रिश्तों का लिहाज, वहां भी छोड़ शालीनता,
सही गलत ने उलझाया मुझे…
हो घूंघट की हया या पैरों में पायल,
जाने क्यों नहीं, कभी रास आई मुझे…
दुनिया की रस्में या मर्यादा के चश्मे से
कभी भी दुनिया मेरे समझ
आई नहीं