July 1, 2025
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(आए दिन भगदड़ की घटनाएं होती रहती हैं, हम इस तरह की घटनाओं से इस कदर रूबरू होते रहते हैं कि हमारे मानवीय संवेदना को कोई फर्क नहीं पड़ता।
यह हमें मामूली प्रतीत होता है जैसे हमारे सांसों का आना जाना। ये घटनाएं जो हमारे लिए सामान्य सी होती है वहीं घटना किसी शख्स की या किसी परिवार की पूरी जिंदगी बर्बाद कर देती है।)
यह घर आज कितना क्षत, विक्षत सा है। ना ही घर में एक ढंग का पलंग है, ना ही कुर्सी, बेरंग दीवारें, जगह-जगह गड्ढे वाले फर्श, इस घर पर अगर एक भरपूर नजर डालो तो खुशी का नामो निशान नहीं, हर जगह खामोशी, उदासी और सन्नाटा पसरा है।
एक वक्त था इसी घर में मेला लगा रहता था।
चाय की केतली उतरती नहीं थी नौकर – चाकर, चहल- पहल, भरा, पूरा परिवार घर का मुखिया बड़ी तल्लीनता से आने वाले हर इंसान की बात सुनता, सोचता, विचारता और अपना फैसला सुनाता था।
दूर-दूर तक चर्चा थी उनकी ईमानदारी की, लोगों को अगर कहीं और इंसाफ नहीं मिलता तो बैलगाड़ी में भर भर आया करते थे। वह राजा नहीं थे पर शानो – शौकत और ठाट- बाट राजा से कम भी नहीं था। गरीबों को मुफ्त दवाई, मुफ्त इलाज सब उपलब्ध था वहां।

उनके द्वारा बटोरी गई दुआओं का ही असर था कि वह जो चाह रहे थे, सब पूरा हो रहा था- एक बेटा डॉक्टर, एक वकील, एक इंजीनियर, और एक किसान। इतने बड़े साम्राज्य को संभालने के लिए कोई तो चाहिए था। सफलता की चाबी तो सब के हिस्से आई पर कहते हैं ना सफलता मिलना आसान है पर इस सफलता को बनाए रखना मुश्किल

या यूं कहें हर सिक्के के तो पहलू होते हैं और हर कहानी के दो भाग।
नारायण बाबू मदमुग्ध से अपने चारों रत्नों को निहारत हुए गर्व से फुले नहीं समाते, उनकी छाती और भी चौड़ी हो जाती, जब वह चारों का आपस में प्रेम और सामंजस देखते, पर उनकी यह खुशी यकायक से बदल जाती, जब उनकी सोच का घोड़ा पलट कर दूसरी दिशा से यह कहता- तुमने बच्चों को किताबी ज्ञान और डिग्रियां तो खूब दिला दी… पर अपना परोपकार नहीं सीख पाए,.. ना ही खुद का आध्यात्मिक ज्ञान…. दे पाए! उन्होंने जाने कितनी बार कोशिश की पर समय की कमी ने हमेशा उनके हाथ बांध दिए उनके पुत्र हमेशा पढ़ाई में बिजी रहे और वक्त हाथ से निकलता चला गया। उनकी ख्याति तो चारों ओर थी पुत्रों की सफलता की खबर जंगल में आज की तरफ फैली। अच्छे-अच्छे घरों की कन्याओं का विवाह प्रस्ताव आने लगा। नारायण बाबू ने चारों रत्न के लिए सुघड़, सुंदर और लायक कन्याएं ढूंढी। चारों कन्याएं अलग-अलग परिवेश में पली बढ़ी जरूर थी फिर भी आपस में उनका तालमेल अच्छा था। सबका आदर सम्मान करना चारों को खूब आता था।
पर यह कहानी है ममता की, नाम की ही तरह ममत्व से भरी थी और नजर भर देखो तो –
गोरा रंग, लंबी छरहरी कद काठी, घुंघराले बाल, दोनों भौहें के ऊपर ललाट पर बड़ी से लाल बिंदी लगाती, मोटे-मोटे लाल सिंदूर से अपना बीच मांग भरती, कानों के पास छोटे-छोटे बालों के लट को हवा के साथ लहराने के लिए छोड़ देती, मांग और कान के बीच कंघे को, उल्टा कर दबा- दबा कर बालों में जिक- जैक बनाती। उसका यह लुभावना रूप उस पर खूब जंचता।

देखते ही देखते ममता की गोद में राम, लक्ष्मण जैसे चार पुत्र खेलने लगे ।
बचपन से ही चारों मातृभक्त थे।
जिससे ममतामयी ममता की ममत्व का सागर और भी गहरा होता जा रहा था। बार-बार उसके हाथ हवा में लहरा जाते वह भगवान को धन्यवाद कहते नहीं थकतीं।
वक्त की रफ्तार इतनी तेज थी कि उसे पता ही नहीं चला कि उससे बेल की भांति लिपटे, उसके बच्चे कब इतने बड़े हो गए
की आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें शहर जाना पड़ा।
उसे लगता उसने अपने ममत्व का चंद बूंद ही तो खर्चाया था अभी कि बच्चे धीरे-धीरे करके उसे अकेला छोड़ शहर रवाना हो गए।
वह अपने पति के साथ अकेली रह गई। उसने खुद को पूजा पाठ और घर के कामों में व्यस्त कर लिया। अपने बच्चों के बचपन की चीजों को निहारती, सहेजती, और संजोती।
साल का वह पावन महीना जब माँ दुर्गा अपने लाव लश्कर के साथ अपने भक्तों पर अपना प्यार और आशीष लुटाने आती है। चारों ओर आध्यात्म और पूजा की पावन घंटियां, मंत्रों उच्चार से पूरा दस दिन गूंजता रहता है। ऐसे में ममता का घर भी बाकी घरों से अलग नहीं था पर उसकी खुशी अलग थी क्योंकि इन छुट्टियों में उनके बच्चे भी घर आते थे ममता पहले से ही मेन्यू बना लेती। अपने बेटे की पसंद का खाना बनाती खूब लाड़ जताती। उसके बच्चे, उसके स्वादिष्ट खाने की खूब तारीफ करते।और कहते साल भर रुखा सूखा खाना पड़ता है मां के हाथों का स्वाद तो बस यहीं नसीब है यह सुनते ही ममता प्लेट में और खाना डाल देती बच्चे मना करते, फिर भी नहीं मानती। खाते हुए अपने बच्चों को निहारती रहती।

क्रमशः

priti kumari

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