December 23, 2025
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(एक ऐसी लड़की जो शादी के बाद ऐसे देश (अर्जेंटीना) में रहने जाती हैं जहां हिन्दी और अंग्रेजी ना तो कोई बोलता है ना समझता है दस साल बाद उम्मीद और उत्साह का दामन थामे वापस अपने शहर आती हैं, और फिर……..
नैना की शादी को पूरे दस साल हो गए हैं। इन दस सालों में वह अपनी जिम्मेदारियों में ऐसा फंसी की आराम से मायके आने का मौका ही नहीं मिला।
वह देश से बाहर क्या गई, परदेसी हो गई।
अजनबी देश, अजनबी लोग, अजनबी, अबूझ भाषा, अजनबी सा जीवनसाथी, जिसे पूर्णतया नहीं जानती, समझती थी..
आरामतलब, हंसती खिलखिलाती ख्वाबों सी जिंदगी मानो पहेली हो गई।
जिम्मेदारी बस घर परिवार की ही नहीं थी, अजनबी शहर में पूर्णतया खुद को ढ़ाल लेने की थी, मौसम, खान-पान, पहनावा, रंग- ढंग, ये सब आज भी वह मन से अपना नहीं पाई है। सब सीख लिया है, समझ लिया है..
पर अपने घर, अपने देश की बात मानो, सांसों की तरह है जो दिन रात इस कदर चढ़ता- उतरता है कि हमें महसूस भी नहीं होता। ठीक ऐसे ही अपने घर में होने वाली बहुत सी भयावह, अचंभित करने वाली बातें कब हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है हमें महसूस भी नहीं होता।
यही कारण है कि वह शादी से पहले के पच्चीस बसंत को ना जाने कितनी बार ख्वाबों, खयालों में जी चुकी है, फुर्सत मिलते ही उसका मन मायके की गलियारे में भटकने लगता,
वह कुछ नहीं भूली थी या भूलना नहीं चाहतीं थीं।
उसकी यादों की गठरी मानो, सुख की चिट्ठी हो, जो गाहे-बगाहे उसके मन मस्तिष्क में खुल ही जाती, वह एक सांस में जाने कितने सालों को जी जाती, मन का घोड़ा रफ्तार से भागता जाता, वह मुस्कुराती, गुनगुनाती, उन यादों में खोई रहती।
मायके आने की खुशी तो उसने हर बार महसूस की थी पर हर बार शादी- ब्याह के लिए दो – चार दिन के लिए हीं आती, तो मेहमानों से घिरे घर में ढंग से चहलकदमी भी नहीं कर पाती..
ना ही घर को भरपूर नज़र से व्यवस्थित देख पाती..
क्योंकि पूरे घर की सेटिंग ही बदली होती थी। पर इस बार वह पूरे 15 दिन के लिए आई थी, खूब मस्ती करना है उसे, गप्पे मारना है.. घूमना है.. अपने शहर में, गली में..
एक – एक कोना देखना है…
हवाई जहाज में बैठी, आंखें बंद किये, उसका मन जैसे जहाज के पंखों पर सवार था, जिसे वह सामान्य से ज्यादा गति देना चाहती थी।
उसने अपने चेहरे को स्टॉल (दुपट्टा) से ढक रखा था ताकि उसके चेहरे के बदलते भाव को देखकर कोई उसे पागल ना समझ ले। वह कभी अपनी यादों का पिटारा खोल लेती, तो कभी योजना तैयार करने लगती, मां भाभी को क्या-क्या नया डिश सीखाना हैं, पापा को क्या-क्या खिलाना है, भतीजी के लिए क्या शॉपिंग करनी है, क्या शिक्षा देनी है, वह स्टाॉल के अंदर मुस्कुरा रही थी।

नैना का घर एयरपोर्ट के पास ही था फिर भी भाई हर बार की तरह गाड़ी लेकर आ गया था।
घर वाले का कुशल- मंगल, पूछते – जानते ही उसका घर आ गया।
एक सप्ताह तो घर वालों के साथ कैसे बीता पता ही नहीं चला। माँ को बताकर की वह आज देर शाम तक लौटेगी,
नैना ने दीवार पर टंगी स्कूटी की चाबी उठा ली और भतीजी “नव्या” के साथ घर से निकल गई। जैसे ही उसने स्कूटी में चाबी लगायी, उसकी सोच की रफ्तार को विराम लग गया। इतने सालों बाद… फिर से ड्राइविंग… कहीं… कुछ… अनहोनी… साथ ही उसकी आंखों के सामने उसके पति और बच्चों का चेहरा घूम गया..
नहीं! आज नहीं, कोई जिम्मेदारी, किसी की ममता या प्यार को वह खुद पर हावी नहीं होने देगी। उसने अपनी सोच झटक दी और नव्या के साथ चल पड़ी। अपना शहर है, गली है, यहां पांच साल रोज स्कूटी दौड़ाई है। क्यों घबराना भला, अपने हौसले और आत्मविश्वास के पंख जो लड़कियों के मायके में ही छुट जाते हैं उसे फिर से पहन लिया और चल पड़ी। सबसे पहले वह अपने स्कूल की तरफ जाना चाहती थी पर घर की चारदीवारी से निकलते ही लगा कि यह उसका शहर नहीं है। वह संकरी गली अब चौड़ी हो गई थी, आसपास ऊंची ऊंची इमारतें खड़ी हो गई थी। जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। नैना ने जगह देखकर स्कूटी खड़ी कर दी और पीछे बैठ गई।
नव्या ने बताया कि अब वह स्कूल बंद हो चुका है तो नैना को अपना कॉलेज देखने की उत्सुकता हुई । जब वह वहां पहुंची कॉलेज पूरी तरह बदला हुआ था रोड के दोनों तरफ ना तो पहले की तरह रंग-बिरंगे फूलों वाले गुलमोहर, पलाश, पारिजात और अशोक के पेड़ थे बल्की उसकी जगह नीम, जामुन के पेड़ों ने ले लिया था हां वहां इक्के दुक्के पुराने पेड़ बचे हुए थे। दूर से ही पांच सितारा होटल की तरह चमचमाती हुई कॉलेज की बिल्डिंग दिख रही थी। नव्या ने बताया कि कॉलेज में हॉस्टल के साथ – साथ बहुत बड़ी कैंटीन भी खुल गई है। नैना स्कूटी से उतरकर इधर-उधर घूमने लगी, वह पास के टेलीफोन बूथ पर जाना चाहती थीं। जहां से उसने सैकड़ों बार अपने दोस्तों को फोन किया था या फिर आपातकाल में अपने घर। वहां तो एक बहुत बड़ा गेम जोन बन गया था।
वह आगे बढ़ी स्टूडियो की तरफ जहां दोस्तों के साथ ग्रुप फोटो तो कभी प्रतियोगिता परीक्षा के लिए पासपोर्ट फोटो खिंचवाई थी, प्रिंटआउट, जीरॉक्स, एनलार्जमेंट…. पर वहां तो बहुत बड़ा बुक स्टोर खड़ा था और उसके अंदर ही ये सारी सुविधाएं थी।
कुछ भी उसे जाना पहचाना नहीं लग रहा था। नैना ने नव्या से पूछा यहां आगे एक दुकान होती थी जिसमें पिज्जा, बर्गर और सामने पानी पुरी, वह है कि नहीं? नव्या बोली- नहीं बुआ! वहां आइसक्रीम पार्लर है, यह सब तो कॉलेज के कैंटीन में ही मिल जाता है। उसे बहुत झल्लाहट हो रही थी। इतनी निराशा के बाद उसने हिम्मत करके पूछा वह मां दुर्गा की मंदिर है चौराहे पर.. हां! बुआ, मंदिर है। नैना ने मन ही मन भगवान को धन्यवाद किया। चलो मैं यही हूं, स्कूटी ले आओ! मंदिर चलते हैं।
नव्या के जवाब ने उसके उदास मन में खुशी की एक लहर दौड़ा दी। जब दोनों मंदिर के पास पहुंची तो मंदिर का भी कायाकल्प हो चुका था बस झंडा और उसका त्रिभुजाकार आकार वही था, बाकी नीचे सब कुछ बदल चुका था, मंदिर पहले से ज्यादा भव्य और खूबसूरत दिख रहा था, यह बदलाव पहली बार नैना को पसंद आया। अंदर घुसते ही वह फिर से निराश हो गई। पहले यहां बड़ी सी, बड़ी-बड़ी आंखों वाली, मोहक मुस्कान बिखेरती हुई मां दुर्गा की इकलौती मूर्ति थी। ऐसा लगता था अभी बोल उठेगी। वह मूर्ति की आंखों में आंखें डाल अपने मन के सारे गम, मन ही मन कह डालती और मूर्ति की मुस्कान उसके अंतर्मन को ऐसा छूती कि उसके सारे दुख, दर्द, सवालों के जवाब उसे मिल जाते, पर अब वहां एक संगमरमर की सफेद मूर्ति थी जिसका श्रृंगार भव्य था, पहली नजर में मन में उतर जाना, भक्ति से सराबोर कर देने वाला भाव उसे व्यक्तिगत रूप से महसूस नहीं हुआ। तभी वहां मंदिर में एक जाना पहचाना सा चेहरा दिखा, वह पुजारी जी थे, सबसे पुराने। नैना ने उन्हें प्रणाम किया और पूछ बैठी, बाबा! पुरानी मूर्ति क्यों हटवा दी।
बाबा थोड़ी देर उसे एकटक देखते रहे, ऐसा लग रहा था मानो, उनके मन की बात पहली बार किसी ने पूछ ली हो।वे बिना जवाब दिए हीं एक तरफ बढ़ गए पर नैना भी कहां रुकने वाली थी। यह मंदिर और यहां की मूर्ति उसकी भक्ति और आस्था के प्रति बहुत बड़ा विश्वास था। वह भी बाबा के पीछे चलती रही, बाबा एक कोने में रुक गए और अपने आंखों का कोर पोछते हुए प्रसाद निकलने लगे। नैना फिर पूछी बताओ ना बाबा! वह भराये गले से बोले, उस मूर्ति का रखरखाव मुश्किल था बच्चा! हर साल पेंट और टूट – फूट की मरम्मत करनी पड़ती थी पर यह मूर्ति हमेशा चमकती रहती है। बस एक बार कपड़ा मार दो, यह कहते हुए बाबा ने उसके हाथ में प्रसाद का डब्बा रख दिया।

मंदिर से बाहर निकलते हुए,
नैना ने नव्या से पूछा, वह शहर का बड़ा बिजनेसमैन महेश्वरी उसका घर पता है तुम्हें”? नव्या कुछ नहीं बोली तो नैना ने फिर कहा, चलो! उसकी गली में चलते हैं, जब दोनों वहां पहुंची, माहेश्वरी के गेट पर लोगों का ताता लगा हुआ था। गार्ड एक तरफ सर झुकाए खड़ा था। बहुत सारे लोग अंदर जा रहे थे। नैना भी बुत सी नव्या का हाथ पकड़े अंदर पहुंच गयी।
वहां का दृश्य दिल दहला देने वाला था सामने सफेद कपड़े में लिपटा “हार्दिक महेश्वरी” का शरीर पड़ा था, नैना के कदम लड़खड़ा गए वह गिरने ही वाली थी कि किसी के नन्हे हाथों ने उसे पकड़ लिया हुबहू वही शक्ल, आठ साल का एक छोटा सा लड़का बड़े भोलेपन और मासूमियत से उसे अपने नन्हें हाथों से पकड़े खड़ा था। कैसे भूल सकती है वह, बचपन का दोस्त जो बढ़ती उम्र के साथ दोस्त से कुछ ज्यादा हो गया था। कुछ नहीं, सब कुछ…
उन्हें भी कहां पता था स्कूल से कॉलेज का सफर साथ तय करते हुए, किताबें के फार्मूले को दिमाग में छापते – छापते, वह एक दूसरे के दिलों, दिमाग में छप जाएंगे…
और जीवन के रंगीन सपने देखने लगेंगे.. या फिर किताबों की उलझने सुलझाते- सुलझाते उनके रिश्ते उलझ जाएंगे…
उसके घर वालों को जब पता चला तो कट्टर मारवाड़ी परिवार को यह हजम नहीं हुआ फिर हार्दिक और नैना के सारे कांटेक्ट खत्म कर दिए गए। माहेश्वरी परिवार ने नैना के माता-पिता की बहुत बेज्जती की, साथ ही धमकी दी की अपनी बेटी को मेरे बेटे से दूर रखो। हार्दिक भी इसी परिवार का हिस्सा था जहां बिजनेस का सिक्का, इंसान को हुक्म का इक्का बना देता है। दोनों के रास्ते अलग हो गए थे पर नैना का बाबरी मन एक बार देखना चाहता था हार्दिक और उसके परिवार को कि अब वह कैसा हैं? उसके परिवार में कौन-कौन है? कहां जानती थी वह कि ….
नैना तो इस भ्रम में थी कि वह अपनी यादों के पन्ने में कुछ और पन्ने जोड़ लेगी… पर वक्त की बेरहमी और दस्तूर की कठोर दीवारों ने उसकी यादें भी छीन ली.. वह अभी इसी वक्त भाग जाना चाहती थी..
उसे महसूस हो रहा था वह ऐसे राह पर चल रही है जहां कोई मंजिल नहीं.. जहां सब अजनबी और बेगाने हैं… वह लौट आई है उस बेगानी गलियों में, उस शहर में, उस मोड पर,
जहां हर परछाई अजनबी है। वह सोचती थी कि यह शहर उसे अपनी बाहों में भर लेगा पर आज, उसे एहसास हुआ वह बेगाने शहर में अपनी पहचान ढूंढ रही है, अब वही परदेश उसका अपना है, जहां वह दस सालों से रची बची है.. उसका परिवार जहां है, वही उसका देश है।

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