दादा आज भी खामोश है

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बहुत समय पहले की बात है।  जब हम जंगल में रहते थे। हम सब पेड़ पौधे जानवर आदमी सब साथ साथ मिलजुल कर रहते थे ।एक दूसरे के सगे संबंधी हुआ करते थे ,क्योंकि हम एक दूसरे के बिना अधूरे से थे, हम मानव घर बनाना तो दूर घर जैसे शब्दों से भी अनजान थे। हम नंगे और असभ्य  और पेड़ों  पर रहा करते थे ।एक बार की बात है जून का महीना था बहुत गर्मी थी ।सारे जीव जंतु पेड़ पौधे मनुष्य परेशान थे, हताश थे परंतु एक बरगद दादा ही ऐसे थे जो सबको दिलासा देते ,और इस भयानक गर्मी में भी ठहाके लगाते। यह बरगद दादा बहुत बड़े पुराने और अनुभवी थे। उन्होंने इस से भी भयानक गर्मी देखी थी ।वह सब को बहुत स्नेह करते अपनी हर चीज दूसरे को आसानी से दे देते, परंतु उनके अंदर घमंड बिल्कुल नहीं था। वह स्वाभिमानी थे, और सारे पेड़ पौधे उनकी बहुत ही इज्जत करते ।अपनी हर छोटी बड़ी समस्या उनको बताते, वह अपने सामर्थ्य के हिसाब से सब की सहायता भी करते ।उनके आसपास इतना घना और बड़े पत्ते वाला कोई पेड़ भी नहीं था। इसलिए इस भयानक गर्मी में सब उनके ऊपर ही रहना पसंद कर रहा था। अब उनकी उम्र भी जवाब दे रही थी। वह  ज्यादा बोझ उठाने में  असमर्थ थे। सारे मानव उनसे बातें करते नहीं अघाते, छोटी-छोटी बातों और गलतियों को वो  नजरअंदाज कर देते थे। दादा के ऊपर रहने वाले ज्यादा सुखी और आराम से थे ।
बाकी मानव की अपेक्षा दादा के यह चहेते ज्यादा सुखी थे, और आलसी भी होते जा रहे थे। एक  दिन पड़ोसी पेड़  आम ने इन मानवो को अपने यहां दावत पर बुलाया, उन्हें बहुत सारे मीठे मीठे आम खिलाएं, और कुछ आम देकर विदा भी किया। दूसरे दिन बरगद दादा के यहां युद्ध जैसा माहौल हो गया, सब छीना झपटी कर रहे थे। एक दूसरे को मारपीट रहे थे।

बरगद दादा समझाने की कोशिश कर रहे थे, परंतु उनकी कोई नहीं सुन रहा था, सब आपस में उठापटक कर रहे थे ।कि एक मानव पेड़ से गिरने लगा उसके हाथ में एक टहनी आई,जो कि उसे बचा नहीं पाई,  बूढ़े दादा की कमजोर और बूढ़ी टहनी    टूट गई, अब  दादा दर्द से कराह उठे ,और मानव धम्म  से जमीन पर गिर गया, परंतु फिर भी लड़ाई नहीं रूकी ,  जिसके हाथ जितना आम लगा,सब उस पर टूट पड़े इस आम के लालच ने आदमी को इतना खुदगर्ज बना दिया कि बरसों से  जिनके स्नेह की छाया में वो पल रहे थे उनकी पीड़ा भी नहीं देख पाए। गर्मी और दर्द से बेहाल दादा पानी -पानी बोलने लगे, आदमियों ने फिर लड़ना शुरू कर दिया। मैं ही पानी क्यों लाऊं तुम लाओ…. अरे तुम लाओ ….की आवाज फिर दादा के कानों में जहर घोलने लगी, स्वार्थी इंसान।।।।  तुम्हारे पास पैर है तुम चल सकते हो…. आज तुमने मेरे प्यार और ममता की कद्र नहीं की…. आज पहली बार मुझे तुम्हारी जरूरत है…. मैंने तुम्हारी हर जरूरत पूरी की और तुम… यह कहते हुए बिलख पड़े।।, जाओ मैं श्राप देता हूं. ..आज से कोई भी पेड़ तुम से मुंह खोल कर मदद नहीं मांगेगा …तुमसे बात नहीं करेगा ….चाहे तुम अपना स्वार्थ पूरा करते रहो…… और दादा का वह बड़प्पन व खामोशी आज भी बरकरार है….. हम अपने स्वार्थ की पूर्ति पेड़ो से करते हैं पर बदले में वह  हमसे कुछ नहीं लेता।।। कुछ नहीं कहता खामोश हो गया है, आहत हो गया है।

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