“जिम्मेदारी या बोझ”

शब्दों का मायाजाल है संसार,
जिससे बनती है जीत हार,
धागे यह मोह के ना टूटते हैं,
ना छुटते हैं
जिंदगी के साथ भी,
जिंदगी के बाद भी,
दफनाकर अपने ख्वाब, जीवन बीमा में लगाता है, जमा पूंजी…
क्या परिवार सचमुच होता है इतना बेबस और लाचार…
कि उसके जाने के बाद भी उससे उम्मीद लगाए रहता है… जहां रिश्ते निभते नहीं है अंतिम सांसों तक…
क्या वाकई उन्हीं रिश्तों से उम्मीद है, जिंदगी के साथ भी…
और जिंदगी के बाद भी…