“अध्यात्म”
खुद को स्वीकार करना ही अध्यात्म का आखरी और पहला पड़ाव है। हम अगर खुद को जान ले तो वही परमात्मा को जानना होता है। जिस दिन खुद को जान लेंगे कि हम कैसे हैं, क्या है, स्वीकार कर लेंगे, हम सत्य को जान लेंगे, ज्ञान को जान लेंगे।
सबसे बड़ी बाधा होती है- सत्य को स्वीकार करना।
हम हमेशा दूसरे की नजर से खुद को समझते और जानते हैं। समाज हमें अच्छा कहता है तो हम मान लेते हैं कि हम अच्छे हैं, अगर कोई बुरा कहता है तो हमें पीड़ा होती है।
बहुत ही दुखद, आश्चर्य है कि हम दूसरे की नजरिए से खुद को आंकते हैं। वह सारे जतन करते हैं, जिससे समाज हमें अच्छा कहे, दूसरे की नजर में अच्छा बनने की चाहत इतनी तीव्र होती है की जो हमें पसंद नहीं, हम खुद को वैसा भी बना लेते हैं। गलत, सही, प्रेम, इंसानियत की भावना का त्याग करते हुए भेड़ चाल में शामिल हो जाते हैं।
अपनी छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरे का मुंह देखते हैं।
ड्रेस – अप, मेकअप, अपना आचरण, व्यवहार, अपनी मर्यादा, सब दूसरे के हाथ थमा देते हैं। समाज बतायेगा की हम क्या हैं और हम खुद को वैसा ही जानते हैं, उनकी बातें हमें खुशी देती है, या दुख। पूर्णतया हम आश्रित होते हैं। हमारे अंतरात्मा की खुशियां, पीड़ा से हमें कोई मतलब नहीं होता या यू कहें, हमें स्वीकार नहीं वह आवरण हटाना, जहाँ से बदसुरती दिख जाती है, हम बदसूरत दिखा नहीं सकते, हम बदतमीज हो नहीं सकते।
जिस दिन खुद की बदतमीजी या बदसूरती को हम स्वीकार लेते हैं उसी दिन हम खूबसूरत और तमीजदार हो जाते हैं, जिस दिन यह स्वीकार करते हैं कि- मैं झूठ बोलता हूं, उसी दिन हम सत्य बोलते हैं जिस वाक्त स्वीकार करते हैं कि हमारे अंदर क्या कमियां हैं, क्या खामियां हैं, यकीन मानो उसी वक्त से हम खुद को सुधारने लगते हैं क्योंकि हमने आत्म – निरीक्षण
शुरू कर दिया खुद का, स्वीकार कर लिया, हम साधु हो गए। अध्यात्म की राह पर अपना पहला कदम रख दिया, पर अफसोस कि हम यहां हमेशा दूसरे को समझने में लगे रहते हैं। खुद को समझने में सारी उम्र खर्च हो जाएगी फिर भी आप ना तो अपनी प्रतिभा जान पाएंगे, ना अपनी ऊर्जा, ना अपना व्यवहार, हम सब तो कठपुतली है वक्त के, समाज के बनाए ढकोसले से प्रेरित व्यवहार के, नवरात्रि के नौ दिन हम खुद का अध्ययन करें। नौ दिनों में जितना खुद को जान पाएंगे हमारी भक्ति उतनी ही निकलेगी..
जय माता दी…
Priti kumari