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मेरा घर अब मेरा नहीं रहा,
दीवारें भी सुनती है बाहर का कहा,
चूल्हे की आग में ठंडक है…
रसोई का मेनू बाहर वाला तय जो नहीं करता…
मुस्कान भी उधार की लगती है,
बस आदतें बची है.,
सच्चाइयां थकती है,
जहां गुजंती थी मेरी खनकती हंसी…
किसी और की राय गूंजती है…
जिस खिड़की से आती थी स्वतंत्र हवा,
वहां हवाएं भी किसी और के इशारे से आती है,
मै चाहकर भी मन की बात कह नहीं पाती,
हर बार मेरी आवाज़ दबती है..
जो घर मेरा संसार था,
अब बस दीवारें का बाजार है!!