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आज के स्मार्ट बच्चे कहां समझ पाएंगे रिश्तों की मिठास। उनके पास रिश्तों के नाम पर है ही क्या? जब से जन्म लिया है पूरे घर में खिलौने ही तो पाए हैं। एक से एक आधुनिक, रंग-बिरंगे। जब भी प्यार चाहते हैं व्यस्त माता-पिता या तो टीवी के सामने बिठा देते हैं या फिर स्मार्टफोन थमा देते हैं। जब ये बड़े होंगे तो उन्हें क्यों कद्र होगी भला किसी रिश्ते की।

बचपन तो जिया है हमारी उम्र के लोगों ने। एक की बाहों ने उतारा नहीं तो दूसरे की बाहों ने थाम लिया। पूरा घर भरा होता था और हमारे लिए तो मानो बाहों के पेड़ खड़े थे घर आंगन में।


दादा-दादी, बुआ, चाचा, ताऊ, ताई, बड़े भैया, बड़ी दीदी, नाना-नानी, मौसी, मामा और न जाने कितनी गोदों में खेले हम। आज के बच्चों के खिलौने की संख्या भी कम पड़ जाए अगर हम अपने गालों पर दुलार से पड़े चुम्मन की गिनती करने लगें तो।

हां! हमारी फरमाइशें कम पूरी होती थीं पर मजाल है कोई डांट दे, या हाथ उठा दे। हमेशा एक बड़ा हमारे माता-पिता के सिर पर खड़ा रहता था और झट से अपनी गोद में छुपा लेता था।

वो आंचल, वो गोद, वो रिश्ते और उसकी गर्माहट आज के बच्चे क्या समझेंगे। हमारी एक मां नहीं, जाने कितनी मांओं ने मिलकर पाला हमें या यूं कहें गले तक भरे हुए हैं हम सबके निश्चल प्यार से।

क्यों जरूरत हो हमें समाज की, दोस्त की, यार की, हमारा तो पूरा पोर-पोर ही भरा है मोहब्बत ममता और प्रेम से, रिश्तों की कद्र से। उनकी सुनाई कहानी हमारी कल्पना शक्ति को ऐसी ऊंचाई तक ले जाती थी कि मानो हमारे दिमाग में चलचित्र चल रहे हों।

पर आज कौन सुनाता है कहानियां, कौन बताते हैं अपने बचपन और परिवार के किस्से, सब भाग रहे हैं चारों तरफ भगदड़ मची मची है, कोई भी रुकना नहीं चाहता है ना अपने लिए ना अपने बच्चों के लिए…

2 thoughts on “तरसता बचपन

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