जिस प्रकार समुद्र की शांति को महज पत्थर के एक टुकड़े से भंग किया जाता है और उसमें उथल-पुथल मचा दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार पुष्पा की शांत जिंदगी में शादी रुपी एक सामाजिक रिवाज ने उथल-पुथल मचा दी थी। वह किससे कहती और क्यों? कोई तो ना था उसका अपनी मां के सिवा। अभी उसकी उम्र ही क्या थी 12वीं का फाइनल बोर्ड एग्जाम चल रहा था। पिता 4 साल पहले सबको रोते-बिलखते छोड़ जा चुके थे और भाई अभी ग्रेजुएट फाइनल ईयर की तैयारी में जुटा था। पापा के जाने के बाद सारी जिम्मेदारी उसके नाजुक कंधे पर आ गई थी। मां तो विक्षिप्त सी हो गई थी मानो संसार से कोई मोह ना रहा हो, संन्यास ले चुकी हो। हम बच्चे अगर कुछ कहते वह छोटी-छोटी बातों पर मासूम बच्ची की तरह रोने लगती या यूं कहें कि वह बहुत कमजोर थी ना खुद को संभाल पाई और ना ही हमें। ऐसे में अगर कोई मजबूती से खड़ा था तो वह था मेरा भाई।
अभी हमारा परिवार ठीक से संभल भी नहीं पाया था कि एक लड़के की मुहब्बत ने मुझे कमजोर कर दिया। यह वह वक्त था जब मुझे किसी के प्यार के सख्त जरूरत थी। बहुत अकेलापन था। घर में सब बिखरे हुए थे सब खुद को समेट रहे थे। कौन किसको सहारा देता… सब खुद ही खड़े होने की कोशिश में थे। उस नाजुक वक्त में किसी का प्यार से बढ़ा हाथ मानो मेरे लिए डूबते का सहारा था। मैंने उसकी मुहब्बत कबूल कर ली उसके साथ सपनों के पंख लगा कर अभी उड़ना तो दूर अपने पंख खोल ही रही थी की इजहारे इश्क का वह टुकड़ा मेरे भाई के हाथ आ गया।
घर में तूफान मच गया। इतनी बड़ी विपत्ति के बाद का यह तूफान मेरी जिंदगी में ऐसा समाया कि मैं आज भी उस में फंसी हूं। मेरे भाई ने आनन-फानन में मेरी शादी एक वहशी जानवर से करा दी। उसे जानवर कहना भी मानो जानवर की तौहीनी है। मेरे शरीर के कितने हिस्से कट गए, छिल गए, काले पड़ गए पर किससे कहती? और क्या…
मैं उसे देखकर भयभीत हो जाती… कभी-कभी तो ऐसा लगता मैं इंसान नहीं एक रबड़ की गुड़िया हूं। जिसके साथ वह वहशी खेल रहा है और अट्टाहास कर रहा है। उसके ठहाके मेरे कानों में कांटों की तरह चुभते। मैं हर रोज ईश्वर से प्रार्थना करती कि सब सामान्य हो जाए या वह मुझसे दूर हो जाए। पर यह संभव नहीं था गलती कहां है.. किसकी है.. यह मैं समझ नहीं पाती… ऐसा लगता मेरे सारे सपने, सारे अरमान को कुचल कर मानो ऊपरवाला आनंद मना रहा है।
शादी के बाद वह मुझे लेकर राजस्थान आ गया… मेरे मरुस्थल सी जिंदगी को मानो वह प्रमाणित कर रहा है… मैं प्यार के बूंद-बूंद को तरसती, रोती रहती और इस बंजर में प्यार से गुजारे गए वो चंद यादें मंद-मंद हवा की तरह मुझे सहला जाता है। मैं सोचती काश! वह मेरा पहला प्यार मुझसे ना छूटता। काश! कि मैं उसकी हो पाती।
यह मेरी जिंदगी की ऐसी टिस थी जो मेरे जख्म को भरने नहीं देती। मैं उस जानवर की कभी ना हो सकी। तन तो समर्पित कर देती है पर मन का क्या करती। जिस मन को मेरे पति ने कभी सहलाया ही नहीं, जिस पर प्यार की कोई बूंद बरसाई ही नहीं… मैं बूंद बूंद को तरसती कैसे प्यार कर पाती उस पति से… मैं बस जिंदा लाश थी। किसी भी तरह मेरी सांसे चल रही थीं।
अब मेरे बच्चे बड़े हो गए थे मुझे समझने लगे थे। समझते थे मेरा दर्द, मेरी बेबसी पर इतनी सारी अनगिनत जख्मों का हिसाब कौन देता मुझे। किससे लेती मैं शादी के 25 साल का हिसाब? अब मैं पहले से थोड़ा संभल गई थी क्योंकि बच्चे मेरे सपोर्ट में थे।
आज वह फिर गुस्से में था, मुझसे तरह-तरह के सवाल कर रहा था, मैं डरते हुए उसके सवालों का जवाब दे रही थी या चुप-चुप सी थी। आदतन फिर उसने मुझ पर हाथ उठा लिया। अचानक वहीं पड़ा बैट मेरे हाथ लग गया, मैं दहाड़ते हुए बोली- आ जा आज मैं भी देख लूं। वह ठिठक गया उसके चेहरे का रंग बदलता गया उसके गुस्से से भरी आंखों में भय दिखने लगा। वह चुपचाप वहां से चला गया उसके जाने के बाद मैं जोर जोर से हंसी देर तक हंसती रही, नफरत सी होने लगी खुद से। आखिर मैंने 25 साल यह सब क्यों सहा? यह हिम्मत क्यों नहीं दिखाई क्यों उसके हाथों की कठपुतली बनती रही मैं? आज मैं सब से अपील करना चाहती हूं…
आज बीसवीं सदी में भी बहुत सारी औरतें अपने पति के हाथों मार खा रही है। पढ़ी-लिखी और समझदार नारी भी।
दोष किसका है? उस लड़की का , उस पुरुष का, परवरिश का या फिर हमारे समाज का? पुरुष प्रधान समाज में हमेशा सहना, सिर्फ स्त्रियों को क्यों सिखाया गया है। पुरुष को संयमित रहना क्यों नहीं सिखाते हम.. और क्या अपनी रक्षा के लिए अपने पति पर हाथ उठाना गलत है?
बिल्कुल नहीं, जरूरी नहीं कि आप पुलिस की ही मदद लें। आप अपनी मदद खुद भी कर सकती हैं… तो बंद करिए रोना और तैयार हो जाइए एक नया इतिहास रचने के लिए.. हाथ बांधे मार मत खाइए। आप भी नारी दुर्गा हो, किसी के बारे में मत सोचो, माता-पिता, बच्चे… खुद की रक्षा का प्रण लो… सबसे पहले।
अपनी बेटियों को अपनी रक्षा का पाठ सबसे पहले सिखाएं…