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ये सतरंगी उम्र…
जब दुनिया होती है रंगीन…
दिखता है चारों तरफ इंद्रधनुष ही इंद्रधनुष
गुदगुदा जाता है हवा का झोंका भी..
और हम हंस पड़ते हैं खिलखिलाकर…
वादियों में फैल जाती है खिलखिलाहट,
बनकर संगीत..
मदमस्त सी चलने वाली हवा
बिखेर देती है खुशबू
और संगीत के सातों ताल-लाय पिरोयी…
ये हवा हमें कर देती है मदहोश…
हम पर चढ़ता जाता है नशा का सुरूर
ये सतरंगी उम्र की खुमारी किसी को डुबोता है
खेल में, किसी को चोरी में,
तो किसी को किसी की बाहों में…
तो होता है कोई शराब की बोतल पकड़े…
किसी को मोहब्बत हो जाती है बंदूक से
कहां दिख पाता है अंधेरा
चारों जहां होता है रौशन ही रौशन….
क्या सही है और क्या गलत!
क्या सही है और क्या गलत!!
ये इंद्रधनुषी उम्र है,
कहां दिखता है…
मदमस्त हवा के साथ चलने वाली सांय-सांय करती गर्म हवा…
जिसमें है शिथिलता, परिपक्वता
कि वो देख रहे हैं मदहोश होते
अपने कलेजे के टुकड़े को…
उन्हें भी खबर है इस बेखबर दुनिया की।
कहां समझ पाते हैं…
अपनों के माथे पर उभर आए पसीने की बूंद को…।
क्यों हैं ये हैरान-परेशान,
क्यों गिद्ध सी नजरें गड़ाए हैं…
किससे बचाना चाहते हैं।
ये इंद्रधनुषी उम्र में मदहोश…
अभी कहां समझ पाते हैं ये सब।।
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