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आंखों के समंदर में जो है,

दर्द सी मछलियां…

मची है खलबली

कि अब है आतुर

बाहर आने को…..

कांटों सा फंसा है हलक में बेचैनी,

चाहता है मन जोर-जोर से चिल्लाने को….

सिसकियां निकलती है होठों से मगर,

मध्यम है…. यह दर्द कहां रुकता है

लाख चाहे रोके जाने को…..

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