मैं होती हूं नींद के आगोश में,
और तुम चुपके से आ जाते हो…
जाने कैसे बिना आहट के मेरे,
बंद चेतन में घुस पाते हो…
जानते हो कौन सा जादू,
कैसे मेरा मानसपटल खोल पाते हो…
कभी घूमते हो साथ मेरे वादियों में,
जहां फूल की खुश्बू से मेरी आत्मा महक जाती है…
तो कभी चलते हुए समुद्री पानी में,
चुनते हो मेरे साथ सीप…
कैसे याद है तुम्हें कि मुझे प्रकृति पसंद है,
पसंद है मुझे उगते-डूबते सूरज को निहारना…
या रंग-बिरंगी फूल और तितलियां,
क्या तुम ये भी जानते हो…
बदल जाता है मेरे चेहरे का रंग भी,
जब खेलती हूं कैनवास पर रंगों के साथ…
तो कभी सुनते हुए झरनों का संगीत…
मन मयूर नाच उठता है मेरा, पक्षियों के कलरव से,
महसूस होता है ऊंचा होता कद…
जब देखती हूं पहाड़ की ऊंचाई…
भावनाएं उफनती जाती है देखकर…
नदियों का उफनता पानी,
कहां से सीखा है ये जादू !
बिना कहे सब जान जाना…
और बिना कहे मेरे सपने में आना…
मुझे भी सिखाओ, मुझे भी बताओ…
क्या मुझे भी अपने सपने में बुलाते हो,
बिना मुझे बताए, बिना मुझे जताए…