सिसकती सांसें

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एक निर्वस्त्र औरत दुबकी है कोने में,

आंखें भी उसकी असमर्थ है रोने में,,

 अचानक दौड़े आए,

आए…. और भी आए…..

हाथ में पत्थर लेकर….

पगली आवाज गूंजा,

और भर दिया शरीर जख्मों से,

पत्थर देकर (मारकर)

हर शरीफ की नजरें उससे गुजर गई।

किसी ने कुछ ना पूछा

वो यूं ही सिमटी पड़ी रही

गुजरती रही शरीफों की टोली

ओढे शराफत का लबादा!

एक आया माइक लेकर,

किया उसने सहायता का वादा,

बोलो- तेरे साथ क्या हुआ?

क्यों रो रही हो?

क्यों होकर हताश

अपने अस्तित्व को खो रही हो?

रूपसी, सुबकी… मेरे मालिक ने…

अमीर बनाना चाहा, मुझे…

बोले! बाहों में भरती हो गंदगी

आओ! बाहों में भर लूं तुझे!

मैंने इनकार किया, यही मेरी खता है…

यह पत्थर बरस कर मुझपर

 दे रहे गरीबी की सजा है..

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