भीड़ में गुम वजूद

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एक समाज ये

न जाने कितनी हस्ती थी

रहते हैं हम जहां वह शरीफों की बस्ती थी।

जाने कहां से भीड़ को चीरता

आ गया एक गोला..

गिर पड़ा शरीर

भगदड़ मची

कोई कुछ ना बोला..

सुबक रहे थे परिजन

 धधक रहा था सीने में शोला…

 भाग खड़े हुए थे जो

फिर से वहां आ रहे थे (लोग)

गोली इसे ही क्यों लगी

सभी सवाल कर रहे थे….

पार्थिव शरीर के होठों पर

निश्चल हंसी थी,

बेशर्मी के इस जहां में

वाकई शर्म के लिए जगह नहीं थी,

नकाबपोश जश्न मना…

लाश देख तसल्ली कर रहा था

सारा इकट्ठा समाज वहां

मूक-बधिर सा खड़ा था

आवाज है हमारी

सिर्फ गाने के लिए

 बगावत नहीं कर सकता…

हाथ हैं हमारे सिर्फ खाने के लिए

किसी की रक्षा नहीं कर सकते…

इस समाज से अच्छा है

मर जाने के बाद का शोर…

अखिर जीवन के लिए हम जाएं किस ओर?

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