“जिम्मेदारी या बोझ”
शब्दों का मायाजाल है संसार, जिससे बनती है जीत हार, धागे यह मोह के ना...
शब्दों का मायाजाल है संसार, जिससे बनती है जीत हार, धागे यह मोह के ना...
तुम दिन व दिन बड़े होते गए मेरे अंदर फैलती गई जड़े तुम्हारी खिला दिए...
हुई ऐसी तलब तुम्हारी, की धड़कनें थमने सी लगी… कभी घबराई, कभी बेचैनी बढ़ने लगी…...
यह जो महफ़िल सजी है, लगी है भीड़… खुशी में ठहाके लगाने वालों की बस्ती...
रिश्ते- नाते, परंपरा, मर्यादा, सामाजिक दायरे…. के सारे गिरह खोलकर, तोड़कर… मैंने तुमसे गांठ लगाया।...
मेरे महबूब की महबूबा सुनो, सोचती हूं मैं, तुम कैसी दिखती होगी? जिन आंखों में...
समाज में रहने के लिए क्यों समाज होना पड़ता है? हम क्यों नहीं सिर्फ माता-पिता...
जब भी बहुत प्यार आया तुम पर, तो आई हंसी खुद पर, तुम्हें है जरूरत...
नये साल में जाने क्या – क्या बातें होंगी नयी… अधिकार करेगी टेक्नोलॉजी, हम खड़े...
मेरे होने से तीन दशक होता है पूरा! कुछ ऐसे संस्कार जो सीखे हैं अस्सी...