चांद पा लेने की चाह
ना मैं पाषाण ना ही पत्थर की मूर्ति हूं मेरे अंदर की भावनाएं भी उछाल...
ना मैं पाषाण ना ही पत्थर की मूर्ति हूं मेरे अंदर की भावनाएं भी उछाल...
एक लड़की अल्हड़ सी, अदाएं भी मासूम… मंडराती है भंवरे सी कलियों को चूम-चूम नहीं...
धरा की पुत्री थी वह धरा की ही तरफ सहनशील, क्षमाशील…. मैं हूं एक आम...
वो निकलता है हर सुबह सज धज कर… पर वापस निढाल आता है। सोचकर...
कुछ कहना चाहती हूं तुमसे कुछ नहीं, बहुत कुछ…. पर एक तुम हो, जो सुनना...
मैं होती हूं नींद के आगोश में, और तुम चुपके से आ जाते हो… जाने...
आंखों के समंदर में जो है, दर्द सी मछलियां… मची है खलबली कि अब है...
मैं एक लड़की थी बदनाम! काट खाने को दौड़ता था मेरा नाम!! मैं रो सकती...
ये सतरंगी उम्र… जब दुनिया होती है रंगीन… दिखता है चारों तरफ इंद्रधनुष ही इंद्रधनुष...
क्यों मोहब्बत होती है एक स्त्री को सिर्फ पुरुष से या एक पुरुष को स्त्री...